गुरुवार, 12 अक्टूबर 2017

।। मंदिर ।।

 
    ।।मंदिर ।।
हमारा जीवन मंदर की तरह है। आत्मा की वितराग अवस्था
ही देवत्व है ।
हम सभी में वह देवत्व शक्ति विद्यमान है। अपनी इस देवत्व शक्ति को पहचान कर उसे अपने भीतर प्रकट करने के लिए
हमने बाहर मंदिर बनाए हैआैर उनमे अपने आर्दश सिद्ध परमात्मा को स्थापित किया है।

हम जानते है और रोज देखते भी हैं कि घर तो पशु-पक्षी सभी बनाते हैं,लेकिन म्पूर मनुष्य ही बना पाता है।

गुम्बद से टकराकर गूँजती ओंकर ध्वनि , घंटे का धीमा -धीमा नाद,अभिषेक और पूजा के भाव भीने सभी वातावरण को पवित्र बनाने की सामर्थ्य छिपी है।
सवाल यह है कि कौन मंदिर में प्रवेश पाकर अपने आत्म-प्रवेश द्वार खोल पाता है।

मंदिर में विराजे भगवान की वितराग छवि को देखकर अपने राग द्वेष के बन्धन को क्षण भर के लिए छिन्न-भिन्न कर देना और अहंकार को गलाकर अपने आत्म-स्वरूप में लीन होने के लि स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पित करते जाना ही मंदिर की उपलब्धि है।

    

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