जीवन की मिठास ।।
एक राहगीर ने नदी से पूछा " है माता ! क्या राज है कि तू इतनी छोटी है परन्तु फिर भी तेरा जल इतना मीठा है। जबकि
सागर इतना विशाल है, किन्तु उसका जल खारा है। "
नदी ने राहगीर से कहा कि "पथिक ! अच्छा होगा, कि तुम यह रहस्य सागर से ही पूछो। " पथिक ने सागर से भी यही सवाल किया ।
सागर ने कहा "हे मनुष्य ! नदी इस हाथ लेती है, उस हाथ देती है अपने पास कुछ नहीं रखती । परन्तु मैं सबसे लेता हूँ, देता किसी को नही । इसलिए मैं अपने में ही घुल-घुल कर खारा होता जा रहा हूं। यह मेरी संकीर्ण स्वार्थवृति है।"
रहागीर समझ गया कि जाे अपने सुख दुख साक्षा नही करता ,
जाे इस हाथ से लेकर उस हाथ देता नहीं, उसके जीवन की
मिठास समाप्त हो जाती है। अतः हमें भी अर्जन के साथ विसर्जन भी करना चाहिए।
धन्यवाद।
एक राहगीर ने नदी से पूछा " है माता ! क्या राज है कि तू इतनी छोटी है परन्तु फिर भी तेरा जल इतना मीठा है। जबकि
सागर इतना विशाल है, किन्तु उसका जल खारा है। "
नदी ने राहगीर से कहा कि "पथिक ! अच्छा होगा, कि तुम यह रहस्य सागर से ही पूछो। " पथिक ने सागर से भी यही सवाल किया ।
सागर ने कहा "हे मनुष्य ! नदी इस हाथ लेती है, उस हाथ देती है अपने पास कुछ नहीं रखती । परन्तु मैं सबसे लेता हूँ, देता किसी को नही । इसलिए मैं अपने में ही घुल-घुल कर खारा होता जा रहा हूं। यह मेरी संकीर्ण स्वार्थवृति है।"
रहागीर समझ गया कि जाे अपने सुख दुख साक्षा नही करता ,
जाे इस हाथ से लेकर उस हाथ देता नहीं, उसके जीवन की
मिठास समाप्त हो जाती है। अतः हमें भी अर्जन के साथ विसर्जन भी करना चाहिए।
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